- अरुण कुमार डनायक
युवा कथाकार पराग मांदले की पुस्तक 'गांधी के बहाने' हाल ही में पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। महात्मा गांधी जैसे व्यक्तित्व पर लिखना और बोलना एक ओर सहज प्रतीत होता है, तो दूसरी ओर यह अत्यंत दुरूह भी है। उनके जीवन और विचारों पर विपुल साहित्य उपलब्ध है, किंतु बिना गहन अध्ययन के उनकी गहराई को स्पर्श करना असंभव सा है। हिन्द स्वराज के एक-एक शब्द को अक्षुण्ण रखने की प्रतिबद्धता रखने वाले गांधी ने बाद के वर्षों में अपने विचारों में आवश्यक परिवर्तन भी स्वीकारा। ऐसे में, उनके व्यक्तित्व और दर्शन को संक्षेप में प्रस्तुत करना किसी साधक के समान परिश्रम मांगता है।
गांधीजी एक दर्जन से अधिक भाषाओं के ज्ञाता थे। अंग्रेजी, हिंदुस्तानी और गुजराती पर उनकी असाधारण पकड़ थी। उनकी वाक्पटुता ऐसी थी कि भारत के वायसराय तक उनसे संवाद करने में संकोच करते थे, यह भय मन में लिए कि कहीं गांधीजी उन्हें अपने तर्कों से प्रभावित न कर दें। ऐसे व्यक्तित्व के विचारों को सरल शब्दों में ढालना कोई साधारण कार्य नहीं। पराग ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए 186 पृष्ठों और 19 अध्यायों में गांधीजी के जीवन और दर्शन को सहजता से प्रस्तुत किया है।
पुस्तक का एक उल्लेखनीय अध्याय है - 'गांधी की अहिंसा : प्रासंगिक नहीं, अनिवार्य'। इसमें लेखक 1934 में गांधीजी द्वारा कांग्रेस से दिये गये त्यागपत्र का जिक्र करते हैं। गांधीजी का मानना था कि कांग्रेसियों में सत्य, अहिंसा, अस्पृश्यता उन्मूलन, सूत कातने और खादी धारण करने के उनके मार्ग का अनुसरण करने की न तो शक्ति थी और न ही संकल्प। लेकिन मांदले यहां ठहरते नहीं; वे एक गहरे रहस्य से पर्दा उठाते हैं - गांधीजी की चिंता केवल स्वतंत्रता प्राप्ति तक सीमित नहीं थी, बल्कि उससे भी अधिक वे स्वतंत्र भारत के पुनर्निर्माण को लेकर चिंतित थे। यही दूरदृष्टि उन्हें अपने समकालीन नेताओं से अलग करती है। वे केवल स्वाधीनता संग्राम के नेतृत्वकर्ता नहीं थे, बल्कि भविष्य के मार्गदर्शक भी थे। पद और प्रतिष्ठा से परे, वे जनता की नब्ज़ टटोलने में सिद्धहस्त थे और उनकी आवश्यकताओं को भली-भांति समझते थे। आज के राजनीतिज्ञों के लिए गांधीजी के इस आचरण से प्रेरणा लेना नितांत आवश्यक है, ताकि वे केवल सत्ता के साधक न बनें, बल्कि राष्ट्र के सच्चे संरक्षक भी बन सकें।
मांदले ने इस पुस्तक के माध्यम से गांधीजी के विरुद्ध किये जा रहे दुष्प्रचार का सशक्त खंडन भी किया है। गांधीजी के विचारों से उनके समय में भी कई भारतीय असहमत थे, किंतु वह असहमति सैद्धांतिक थी, चरित्र हनन का प्रयास नहीं। आज स्थिति भिन्न है। गांधीजी पर ब्रिटिश एजेंट और मुस्लिम तुष्टिकरण जैसे आधारहीन आरोप लगाए जाते हैं। उनके स्वतंत्रता संग्राम में त्याग और बलिदान को नकारा जाता है। मांदले ने इन आरोपों का तथ्यों के साथ जवाब दिया है। भारत विभाजन के लिए गांधीजी को दोषी ठहराने वालों को वे याद दिलाते हैं कि वह समय साम्प्रदायिक तनाव और राजनीतिक जटिलताओं से भरा था। जनमत भी गांधीजी के पक्ष में नहीं होकर विभाजन को स्वीकार करने का पक्षधर था । निराश और दुखी मन से गांधीजी ने विभाजन को सहमति तो दी पर स्वीकार नहीं किया। उन्होंने स्वयं भारत विभाजन के विरुद्ध उपवास पर नहीं जाने के कारण बताते हुए कहा था कि उपवास दबाव डालने या क्रोध के लिए नहीं, बल्कि आत्म शुद्धि के लिए होता है।
'क्या गांधी स्त्री-विरोधी थे?' अध्याय में मांदले अलका सरावगी जैसे लेखकों के आरोपों का जवाब देते हैं। गांधीजी ने भारत आते ही स्त्रियों की उन्नति के लिए प्रयास शुरू किए। उस समय नारी स्वतंत्रता और सशक्तिकरण को लेकर गांधीजी के विचार किसी रूढ़ियों के बंधन में नहीं थे, बल्कि वे समाज की वंचित और शोषित महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए क्रांतिकारी सुझावों से परिपूर्ण थे। उनके विचार परंपराओं की जंजीरों को तोड़कर नारी गरिमा और आत्मनिर्भरता की नई राह खोलने वाले थे। उनके आह्वान पर महिलाएं स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ीं। शराबखानों का घेराव हो या नोआखाली के दंगाग्रस्त क्षेत्रों में महिला सहयोगियों का साहस, यह सब गांधीजी के प्रेरणा-प्रभाव एवं एकादश व्रतों में प्रमुख सर्वत्र भय वर्जनं का आश्चर्यजनक परिणाम था। सरला देवी चौधरानी के साथ उनके संबंध को लेकर भी मांदले स्पष्ट करते हैं कि गांधीजी ने उन्हें आध्यात्मिक पत्नी तक कहा।
गांधीजी ने अपने पत्रों में स्वयं को लॉ गिवर या विधि प्रणेता कहा, यानी ऐसा व्यक्ति जो सत्य और अहिंसा पर आधारित जीवन जीने के साथ-साथ समाज को भी उसी दिशा में अग्रसर करने के नियम गढ़ता है। दुर्भाग्य से, आज सरला देवी चौधरानी और गांधीजी के बीच हुआ पूरा पत्राचार उपलब्ध नहीं है, जिससे उनके विचारों और संवाद की गहराई का संपूर्ण आकलन कर पाना कठिन है।ऐसे में कल्पनाओं के आधार पर चरित्र हनन अनुचित है
लेखक का यह कथन विचारणीय है कि गांधी आलोचना से परे नहीं, पर वह आलोचना तथ्य आधारित होनी चाहिए, पूर्वाग्रह से मुक्त।
पूना समझौता और गलतफहमियां' अध्याय में मांदले पूना पैक्ट को लेकर व्याप्त भ्रमों का खंडन करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि यह समझौता केवल गांधी और आंबेडकर के बीच की संधि नहीं थी, बल्कि व्यापक सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में हुआ था। आंबेडकर ने इसे किसी दबाव में नहीं, बल्कि तत्कालीन परिस्थितियों को समझते हुए स्वीकार किया था। यह समझौता दलित वर्ग के लिए हानिकारक नहीं था, जैसा कि कुछ धारणा बनी। बावजूद इसके,आंबेडकर की गांधी-विरोधी धारणा बाद के वर्षों में भी बनी रही - 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध, वायसराय की परिषद में शामिल होना, जिन्ना के साथ मंच साझा करना, और यहां तक कि जनसंख्या के संपूर्ण स्थानांतरण जैसा अव्यावहारिक सुझाव देना, इसके उदाहरण हैं। इसके विपरीत, गांधीजी ने अपनी उदारता का परिचय देते हुए उन्हें संविधान सभा में स्थान दिलाया। पराग का यह कथन विचारणीय है कि वैश्विक ख्याति प्राप्त करने के बावजूद गांधी को एक सामान्य मनुष्य मानकर उनकी आलोचना की जाती रही, जबकि बाबा साहेब को लगभग देवत्व के स्तर पर रखकर आलोचना से परे मान लिया गया है।
मांदले की यह पुस्तक गांधी-विचारों का पुनरावलोकन ही नहीं, बल्कि उनके खिलाफ दुष्प्रचार का सटीक उत्तर भी है। संदर्भों से समृद्ध यह कृति पाठकों को गांधीजी के प्रति नए दृष्टिकोण से सोचने को प्रेरित करती है।